Friday, November 21, 2014

मानव

मानव
विचारों में सवार होकर
उलझनों में उलझकर
अपने आपको नहीं पहचानता

मानव
झरनों के इस मंथन मे
समता के भाव दृष्टि में
अपने आप को नहीं पहचानता

मानव
वीणा के इस झंकार में
भटकता श्रेष्ट संसार में
अपने आपको नहीं पहचानता

मानव 
निज नाम के उत्थान में
पथ में पडे दल दल में
अपने आप को नहीं पहचानता

मानव
गुजरते पल  छुने में
समय की लहराती राह में
अपने आपको नहीं पहचानता

मानव
चेतना के विस्तार में
धुप की दिवारों में
अपने आपको नहीं पहचानता

मानव
बचपन के खिलौने में
आंगन की गहराई में
अपने आपको नहीं पहचानता

मानव
सुरज के पिघलने में
सुरमई शाम के अंगारों में
अपने आपको नही पहचानता

मानव
यादो के हल्की धुन्ध में
हवा के तेज झोके में

अपने आपको नहीं पहचानता

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