Monday, January 5, 2015

अपनी माटी




साँसे मेरी थमने को है
आँसूंओ का सैलाब बहने को है
मुस्कान  मेरी मानो गुजर सी गई
सभी तस्वीरें गिर कर बिखर सी गई
कुछ बचा नहीं सिर्फ 
एक शून्य

पास आने में साये भी कतराने लगे हैं
फूल भी दूरियां बढ़ाने लगे हैं
चाँद भी दूर हो गया घने बादलों में
अब मुझसे
सूरज भी कहीं छिप गया आंधियों में
बचा नहीं कुछ भी 
सिवाय शून्य के

रिश्तों की आहट भी उलझाती है मुझको
अपनों से जी घबराता
पथरा जाती आँखें कई मर्तबा
साँसे रुकी हुयी सी लगती
जब पास होता है सिर्फ 
एक शून्य

किश्तों में जिंदगी

आँखों में 
चुभते हैं कई अजीब प्रश्न
इन दिनों 

मेरी अभिशप्त आँखें और 
ये आवारा सपने
आहटें अजीब और उनकी परछाइयां

लगभग उलझे हुए आदमी की शक्ल वाले 
संबंधो के धागे
परेशान करते हैं मुझको

सकुचाता मन और
तन्हाई बहुत कुछ लील जाती
तोड़ जाती कितने भ्रम मेरे
एकाएक यादें
अकेला कर देती

तमाम इच्छाओं की इमारत
गिरती हुयी सी लगती है
तमन्नाएं सारी छिन्न छिन्न

जी रहा हूँ यूं ही है
इन दिनों 
किश्तों में ज़िंदगी अपनी

त्रैमासिक ई-पत्रिका 'अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati)वर्ष-2, अंक-17, जनवरी-मार्च, 2015 में प्रकाशित रचनाएँ
गोविंद प्रसाद ओझा
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