डबडबाती आखों से
कैसे निहारे मन में
गरल से भरे अमृत कलश..
भावनाए... अपरिचित, अदृश्य
आस्था के भ्रम में डूबते हुए
अपरिचित बन बह गये...
संबंधो की शिला सहमकर
रुदन का बोध, अंधेरी आंधियों में
थक गए आंसुओ के हर शब्द
सीमा रेखाएं चुपचाप तोड गया
भावनाओ...के निर्झर आंचल से
अपरिचित बन बह गये...
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